संत श्री देवारामजी महाराज का जीवन परिचय

संत श्री देवारामजी महाराज का जन्म श्रावण सुदी 14 संवत् 1972 को जोधपुर जिला की वर्तमान तहसील लूणी के गांव दुन्दाड़ा में काग गोत्र के एक साधारण कलबी किसान के घर हुआ था। आप की माता का नाम श्रीमति धनीबाई था जो कि जालोर जिला की आहौर तहसील के गांव बरवा में निवास करने वाले श्री खीमारामजी बग की एकलौती सन्तान थी। आप के पिता का नाम श्री हरारामजी था आप के दादाजी श्री तुलछारामजी पहले बाड़मेर जिला की सिवाना तहसील के गांव रामपुरा के खेड़ा में रहते थे पर आप के दादाजी का रामपुरा के सामन्तो के साथ मन-मुटाव हो जाने के कारण आप दादाजी सदा के लिये वहॉ से पलायन कर दुन्दाड़ा गांव के आकर बस गये थे।
आपके दो बड़े भाई थे सबसे बड़े भाई का नाम श्री गुलारामजी था तथा दुसरे बड़े भाई का नाम श्री रावतरामजी था श्री रावतरामजी का परिवार आज भी दुन्दाड़ा गांव में अपने पैतृक निवास पर रहता है तथा श्री गुलारामजी के परिवार वाले रोहिचा में रहते है जहॉं पर श्री रावतरामजी घर जवाई बन कर चले गये थे दो भाईयों के अतिरिक्त आपके कोई सगी बहिन नही थी।
आप के पिता अपने छोटे व सुखी परिवार के साथ अपने स्वय। के खुदवाये बेरा वागा पर श्री दुर्गारामजी के साथ मिल कर काश्त करते हुए अपनी आजीविका कमा रहे थे कि संवत् 1975 की महामारी अपना विकराल रूप धारण कर इस भू-भाग में फैल गई इस महामारी ने आपके अनेक संगे संबधियो के साथ आपकी माता श्रीमति धनीबाई को भी अपना ग्रास बना लिया। आपकी माता के पंच भूतों में विलिन होने के पश्चात संवत् 1978 के जेठ महिना में आप का शरीर लकवा ग्रस्त हो गया जिससे आपके नाभी के नीचे का सारा शरीर बैकार हो गया लकवा ग्रस्त होने के कारण आप का चलना फिरना असंम्भव हो गया लकवा ग्रस्त होने के पश्चात आपके पिताजी ने आप का इलाज कराने के लिए कई हकिम, बैधों से उपचार कराने का प्रयास किया व अनेक आझाओं से झाडू फूंका कराया व भोमियो को मीठा चरका रोट चढ़ाया पर सब बैकार गया। जब आप सदा के लिए अपंग हो गये तब आप के पिताजी ने आपको श्री सवारामजी श्रीमाली की पौशाल दुन्दाड़ा गांव में महाजनी पढ़ाई कराने के लिए भेजना प्रारम्भ किया आप के पिताजी प्रातः आप को खाना खिला कर दोपाहर की रोटी कपड़ा में बान्ध कर आप को कन्धों पर बैठाकर पाठशाला पहुचा दिया करते थे तथा शाम को वापस घर ले अया करते थे अगर कभी कभार आप के पिताजी जरूरी काम में लगे रह जाते तो आप के भाई श्री गुलारामजी व श्री रावतरामजी दोनों अपने हाथों की बाकूली पर बैठा कर पहुचाने व लाने का काम कर लिया करते थे।

संवत् 1978 में जिस समय आप श्री सवारामजी मास्टर साहब की पाठशाला में पढ़ाई कर रहे थे उस समय सन्त श्री राजारामजी महाराज ने अपना आसन जोगमाया के मन्दिर से बदलकर निज मन्दिर पर कर दिया था सन्त श्री राजारामजी महाराज धार्मिक उपदेशो के साथ अपने आश्रम तक पहुचने वाले श्रृद्वालुओं के अनेक प्रकार के असहाय रोगो का भी उपचार किया करते थे जब सन्त श्री राजारामजी महाराज द्वारा किये जाने वाले असाध्य रोगो के उपचार किये जाने की जानकारी आपके पिता श्री हरारामजी को हुई तब देव झूलनी ग्यारस को अपने लाडले का उपचार कराने के लिए निज मन्दिर शिकारपुरा पहुच गये। दिन भर मेला चलता रहा तथा शाम को जब मेला समाप्त हो गया तब आपके पिताजी ने आप को कन्धो पर बैठा कर सन्त श्री राजारामजी महाराज के सम्मुख बैठा अपने पुत्र की बीमारी का वृतान्त सुनाने के साथ साथ अपने परिवार की सारी कहानी गुरूजी को सुना दी सन्त श्री राजारामजी महाराज ने आपके पिता द्वारा कही कहानी को सुन कर अपने सम्मुख बैठे प्रतिभामान अपंग बाल को देखा और कहा
‘‘ तुम्हारे तो दो ही काफी है इस एक को तो मुझे दे दो। अगर इस का भाग्य होगा तो यह चंगा हो जायेगा नही तो राम नाम रढता रहेगा और यहॉं का खिचड़ा खाता रहेगा।
आपके पिताजी ने गुरूजी के प्रस्ताव को स्वीकार कर कहा,
अगर आप की इच्छा हो गई है तो मुझे आप के प्रस्ताव को स्वीकार करने में गौरव की अनुभुति होगी।
सन्त श्री राजारामजी महाराज की इच्छा के अनुसार आप के पिताजी ने दूसरे दिन यानि भादवा सुदी ………. को सन्त श्री राजारामजी के निज मन्दिर के पास रख दिया ओर आप अपने घर दुन्दाड़ा पहुच गये और अपने धन्धो में लग गये।
सन्त श्री राजारामजी महाराज के छः सात दिनो तक अपने पास रहे अपंग देवा की चित वृतियो का अध्ययन किया तथा फिर आठवें दिन शाम को सोते समय आप को एक कड़वी दवाई की खुराक दी गई जिससे आपके अपंग शरीर में अत्यधिक गर्मी उत्पन हो गई जब कुछ समय पश्चात दवा का प्रभाव कुछ कम हुआ और आप को नींद आ गई दूसरे दिन जब आप उठे उस समय आपको पावों में कुछ विशेष प्रकार की चेतना होने की अनुभुति हुई दवाई का अनुकुल प्रभाव होते देख कर सन्त श्री राजारामजी महाराज ने तीन चार दिन तक वही कड़वी दवाई पिलाई जिससे आप बिल्कुल स्वस्थ हो गये। जब आप पूर्ण रूप से स्वस्थ हो गये तब सन्त श्री राजारामजी महाराज ने जोधपुर से राक लकड़ी की स्लेट तथा एक बारहखड़ी की पुस्तक मंगवा दी और मन्दिर के पूजारी श्री……………………………………… ब्राहा्रण को सुबह शाम आप को पढ़ाने के लिए रख लिया।
आप जब स्वस्थ हो कर पढ़ने लगे तब आप के चंगा होकर पढ़ाई करने के समाचार आप के पिताजी को दुन्दाड़ा हो गया। आप के पिता आप को चंगी अवस्था में देखने के लिये वैशाख सुदी 14 संवत् 1978 को निज मन्दिर शिकारपुरा पहुच गये आप के पिताजी ने आपको चंगी अवस्था में देख कर बड़े प्रसऩ्त्र हुए तथा सन्त श्री राजारामजी महाराज के प्रति हार्दिक कृतज्ञता प्रकट की। दिन भर आप अपने पिता के साथ रहे जब आपके पिता वापस अपने घर रवाना हुए तब आप अपने भाईयों से मिलने के लिये आपके पिता के साथ रवाना हो गये। जब आपके पिताजी ने साथ ले जाने के लिए मना किया तब आप अपनी ऑंखे डबडबा कर रोने लग गये। आप के पिता अपने पुत्र का दुःख देख ना सके और सन्त श्री राजारामजी महाराज के बड़े भाई सन्त श्री रधूनाथरामजी से तीन चार दिनो के लिए अपने साथ ले जाने की अनुमति लेकर अपने पुत्र को लेकर दुन्दाड़ा पहुंच गये।
अपने घर आकर आप अपने भाईयों तथा चाचा श्री खेतारामजी से मिलकर बड़े खुश हुए जब तीन चार दिनो के स्थान पर तीन चार महिनो तक भी आपके पिता ने आपको पुनः निज मन्दिर समाचार करने के लिए भी नही भेजा जब आपके पिता ने अपने मन में वापस न भेजने का विचार किया तब आप के साथ एक अजीब प्रकार की घटना घट गई। हुआ यू कि एक दिन पूरा परिवार शाम मे समय ब्यालू कर सोया जब प्रातः उठ गये पर आप उठने के समय चार पाई से न उठकर बैठे बैठे रोने लगे तब आपके पिता ने आप के पास जा कर न उठने तथा बैठे बैठे रोने का कारण पूछा तब आपने बताया कि ‘‘ मेरे तो पांव काम नही कर रहे है मैं उठ नही सकता‘‘
जब आपके पिता तथा चाचा ने आप को सहारा दे कर खड़ा किया तब भी आप खड़े न हो सके। आप पुनः पूर्व की तरह लकवा ग्रस्त हो चुके थे। यह जानकर पूरे परिवार को बड़ा दुःख हुआ। दूसरे दिन श्री खेतारामजी सन्त श्री रधूनाथरामजी व सन्त श्री राजारामजी महाराज के पास की गई गलती की क्षमायाचना करने पहुच गये दोनो महात्माओं ने आपके साथ घटी घटना का हाल सुन कर कहा,
यह किसी का दोष नही है। अपने पूर्व जन्मो के कर्मो का फल है। अब क्योकि तुम्हारा भाई तुम्हारे भतीज बिना नही रह सकता है न तुम्हारा भतीज तुम्हारे भाई बिना रह सकता है इसलिये तुम पुनः उसको श्री सवारामजी मास्टर साहब की पाठशाला में पढ़ाने के लिये भेज देना उसकी स्लेट, किताब तथा कलम भी जाते समय ले कर जाना। जब वह सवारामजी मास्टर साहब के स्कूल की पूरी पढ़ाई कर ले उस समय उसको पुनः यहॉं हमारे पास भेज देना।
श्री खेतारामजी सन्त श्री रधूनाथरामजी व सन्त श्री राजारामजी महाराज का सन्देश सुन आप की स्लेट व पुस्तक व कलमों को लेकर दुन्दाड़ा लोटे आये तथा संदेश अपने भाई को सुना दिया। आप के पिताजी ने पुनः आप को श्री सवारामजी श्रीमाली मास्टर साहब की पाठशाला में भेजना शुरू कर दिया। जब लगभग चार वर्ष तक लगातार श्री सवारामजी की पाठशाला की पढ़ाई कर महाजनी की पूरी पढ़ाई कर दी तब वैशाख सुदी 14 संवत् 1984 को आप के चाचा श्री खेतारामजी ने तथा आप के पिता दोनो ने आप को पुनः सन्त श्री राजारामजी महाराज के पास शिकारपुरा पहुचता कर दिया।
जब दूसरी आप बार सन्त श्री राजारामजी महाराज की शरण में पहुचे तब गुरू महाराज ने आप के लिए धार्मिक पुस्तको की व्यवस्था की। आप धार्मिक पुस्तको को पढ़ कर उस का सार समय समय पर अपने गुरूजी को सुनाया करते थे। धार्मिक पुस्तको का अध्ययन करने के साथ साथ आप सन्त श्री राजारामजी महाराज के उपदेशो का प्रसार व प्रचार गीतो भजनो तथा कथा कहानियों के माध्यम से किया करते थे जब आप अपनी अपंगता के कारण शेष आश्रम की गतिविधियोें में भाग लेने में असमर्थ रहने लगे तब सन्त श्री राजारामजी महाराज ने पुनः पूर्व की तरह शाम को सोते समय वही कड़वी दवा पिलाने लगे जिनको चार पॉंच दिन पिलाने से आप पूर्ण चंगे हो गये थे। इस बार कड़वी दवाई पिलाने का दौहर चार पॉंच दिन तक न चल कर दस बारह दिन तक चला उसका प्रभाव इतना नही हुआ जितना पूर्व वाले दौहर में हुआ था। आप दूसरे दौहर की दवाई के प्रभाव से काफी चंगे हो गये थे पर इतने चंगे नही हो सके जितने चंगे पहले दौहर की दवाई से हुए थे। आप चंगे हो कर अपना सारा शारिरिक काम काज कर लिया करते थे पर जब तेज भागने का काम होता या बोझ उठाने का काम पड़ता उस समय आपको कठिनाई महसूस होती थी।
जब आप तेज दोड़ने तथा बोझ उठाने मे असमर्थ रहते तब गुरूजी से पूर्ण चंगा होने का निवेदन करते थे एक दिन आपने जब रोनी अवस्था में प्राप्त होकर पूर्ण चंगा होने का निवेदन किया तब गुरूजी ने कहा कि,
‘‘ तुम कुछ कुछ अपंग होता हुआ भी आवश्यकता से अधिक उछल कूद कर रहा है जब पूर्ण चंगा हो जायेगा तो तुम तो मुझे तो क्या भगवान को ही भूल जायेगा। अब इससे अधिक चंगा होने की आशा मत करना। यह शारीरिक कमजोरी एक प्रकार से तुम्हे चेतावनी है कि तम ईश्वर का नाम लेते रहो तथा आश्रम पर आने वाले भक्तो की सेवा शुश्रूता करते रहो। आवश्यकता से अधिक शारीरिक बल मनुष्य को बैल बना देता है अधिक बल मन मे विकार उत्पन कर देता है पूर्ण चंगा होने पर तुम्हारे मन में बड़पन की भावना जागृत हो जायेगी जिससे तुम्हारे भीतर का साधुत्व भाव समाप्त हो जायेगा। जब तुम में साधुत्व नही रहेगा तब समाज को तुम्हारे रहने से क्या लाभ मिलेगा अगर तुम हार्दिक श्रृद्वा के साथ आश्रम पर आने वाले भक्तो की सेवा करते रहे तो तुम को न दौड़ने की आवश्यकता होगी न ही बोझा उठाने की जरूरत होगी ‘‘
सन्त श्री राजारामजी महाराज ने जब पूर्ण रूप से आप को स्वस्थ करने से मना कर दिया तब आप आधिक चंगा होने का लालचा का त्याग कर आपने गुरू के उपदेशों का पालन करना शुरू कर दिया आप आश्रम पर होने वाला हर कार्य लग्न के साथ करने में लग गये। आप सन्त श्री राजारामजी महाराज की सेवा शुश्रूता के अतिरिक्त के आश्रम पर पहुचने वालों के लिये खाने-पीने की व्यवस्था किया करते थे आप आश्रम पर बनने वाले खीच को कुतो मे बटवाया करते तथा पक्षियों के लिये आश्रम पर अन्य पेड़ो की शाखाओं पर लटकाये बर्तनों में चुगा-पानी करने का काम किया करते थे। सुबह शाम नियमित पूजा पाठ करने में भाग लेते तथा टीला के आस पास का सारा वातावरण साफ सुथरा बुहार कर रखते थे जिस समय सन्त श्री राजारामजी महाराज रेत के टीला पर बैठ कर व्याख्यान सुनाते उस समय आप श्रोताओं के बीच विद्मान रहते व्याख्यान के दोहरान अगर सन्त श्री राजारामजी महाराज व्याख्यानों के बीच धार्मिक कथा कहानी सुनाने का आदेश देते तब आप सुनाया करते थे।
सन्त श्री राजारामजी महाराज ने आप को श्री हरारामजी से मांग कर लिया था पर अन्य साधुओं की तरह आप को मुंडित चेला नही बनाया था जब सन्त श्री राजारामजी महाराज के भक्तों ने मुडित शिष्य बनाने की बात की तब आप ने कहा कि ‘‘ चेला चेली का मुंडन करने के पश्चात उनमें उतराधिकारी होने की भावना उत्पन हो जाती है और अपने कर्तव्यों को भूल कर अपने अधिकारो की बातें सोचने लग जाते है जो भी सच्चे मन से मेरी आज्ञा का पालन करता है वह मेरा शिष्य है मुंडन करने से एक प्रकार से जागीर बन जाती जो आज कल में समाप्त होने वाली है अब प्रजातात्रिक व्यवस्थाका युग आने वाला है जिस के साथ बहुमत होगा वही सरकार चलायेगा। जब मेरा शरीर नही रहेगा तब मेरे भक्त लोग मिल बैठकर बहुमत से मेरे योग्य चेला को उत्तराधिकारी चुन लेगे। आज मेरे लिये भलाराम, लछीराम, गुणेशराम, रामूराम, देवाराम आदि के अतिरिक्त हजाबाई, वरजूबाई, सभी मेरे शिष्य है मेरे शरीर मे न रहने पर इनमे से किसी को भी बहुमत से मेरा उत्तराधिकारी बना लेगें। मै किसी का मुंडन कर शिष्यो में संघर्ष की भावना क्यो भरूॅं।
आखिर सन्त श्री राजारामजी महाराज की भावन के अनुसार जब सन्त श्री राजारामजी महाराज ने श्रावण वदी 14 संवत् 2000 को सोलिया बदलने के लिये समाधि ले ली तब आप के भण्डार के अवसर पर सभी भक्तों ने उतराधिकारी के लिए सन्त श्री देवारामजी को सब से अधिक योग्य उतराधिकारी समझ कर बहुमत से आप को श्रावण वदी 14 को चादर दे कर महन्त की पदवी प्राप्त हो गई तब आप श्री देवारामजी के स्थान पर महन्त श्री देवारामजी महाराज के नाम से प्रसिद्व हुए।
सन्त श्री देवारामजी महाराज का सन्त श्री राजारामजी महाराज के उतराधिकारी के स्थान पर चुनाव होना तो आपकी योग्यता का प्रतीक था पर आश्रम का संचालन करना काफी कठिन काम था सन्त श्री राजारामजी महाराज की समाधि के पश्चात आश्रम पर चढ़ावा आना कम हो गया तथा खर्चा बढ़ गया आप सन्त श्री राजारामजी महाराज द्वारा प्रारम्भ की गई किसी भी धार्मिक क्रिया को समाप्त नही करना चाहते थे पर दूने जोश के साथ आगे बढ़ाना चाहते थे आपने कुतो को दिये जाने वाले खीच की मात्रा दूनी कर दी तथा पशु-पक्षियों को दिये जाने वाले दाना-पानी की मात्रा भी डेढ़ी गुनी कर दी। आश्रम पर पहुचने वाले श्रृद्वालुओं के लिये केवल खीच ही परोसा जाता था पर आप के महन्त बनने के पश्चात केवल खीच के साथ सोगरे या रोटिया भी परोसनी शुरू कर दी। अगर कोई बीमारी ग्रस्त श्रृद्वालु उपचार के लिए आश्रम पर पहुचता उस के लिये औषधालय खोल दिया गया तथा सख्त बीमारों के लिए जोधपुर में अलग से व्यवस्था कर दी।
प्रारम्भ में आप को कई प्रकार की कठिनाईयों का सामना करना पड़ा उस में आश्रम की आर्थिक समस्या सब से बड़ी समस्या थी आपने आश्रम का खर्च दुगुना कर दिया पर आश्रम की आय जो चढ़ावे के रूप में आती थी आधी रह गई। आपने सन्त श्री राजारामजी महाराज के उपदेशो का प्रचार व प्रसार करने में भी काफी रूपाया लगाने की योजना बनाई। आपने आर्थिक तंगी की स्थिति में लूणी जंक्शन में रहने वाले एक व्यापारी श्री लक्ष्मीनारायण परिहार से कई बार रूपये भी उधार लिये आप ने अशिक्षित समाज में अन्ध विश्वास मिटाने के लिये, सामाजिक कुरीतियों को मिटाने के लिए, बाल-विवाह, मृत्यु भोज आदि न करने के लिए नाना प्रकार के नशीले पदार्थो का सेवन से होने वाले कुप्रभावों से समाज को दूर रखने के अनेक प्रयास किये। धीरे-धीरे आपने सन्त श्री राजारामजी महाराज द्वारा स्थापित आश्रम के प्रति लोगो की आस्था जागृत कर दी तथा सभी प्रकार की कठिनाईयों पर विजय प्राप्त कर आपने दिनांक 16/05/1994 से 23/05/1994 को विश्व कल्याणार्थ भारतीय सांस्कृतिक जागृति, पर्यावरण रक्षार्थ, कृषि एवं किसानो के अभ्युदयार्थ एवं देश की समृद्वि हेतु एक 108 कुण्डिय श्री विष्णु महायज्ञ का आयोजन कर आध्यात्मिक जगम में अपना नाम जोड़ दिया।
आपने लगभग 16 साल तक अपने गुरू सन्त श्री राजारामजी महाराज की सेवा कर उनके उतराधिकारी सिद्व होने का गुण प्राप्त किया तथा लगभग 54 वर्षो तक सन्त श्री राजारामजी महाराज के उतराधिकारी के रूप में महन्त पर पर विराजमान रह कर नाम कमाने के साथ पर 82 वर्ष की आयु में मिती आषाढ़ वदी 2 संवत् 2053 समय सांय सवा ग्यारह बजे को आप ब्रहा्रलीन हो गये जिन की समाधि सन्त श्री राजारामजी महाराज के मन्दिर के सामने उतर की और लगभग पच्चास मीटर की दूरी पर स्थित है।